कुरआन से फायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी में कुछ गुण पाए जाते हों*पहला गुण यह है कि *आदमी 'परहेज़गार' हो, बुराई से बचना चाहता हो और भलाई की तलब रखता हो

 *कुरआन से फायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी में कुछ गुण पाए जाते हों*



 १.पहला गुण यह है कि *आदमी 'परहेज़गार' हो, बुराई से बचना चाहता हो और भलाई की तलब रखता हो ।*


२. *गैब पर ईमान लाना*

यह कुरआन से फायदा उठाने के लिए दूसरी शर्त है। 'गैब' (परोक्ष) से तात्पर्य वे वास्तविकताएँ हैं जिन्हें इंसान की इन्द्रियाँ नहीं पकड़ पातीं और न कभी आम इंसान प्रत्यक्ष रूप से उनका अनुभव कर पाता है और न उसके देखने में आती हैं, जैसे अल्लाह की ज्ञात, उसके गुण, फरिश्ते, वह्य,  जन्नत, दोज़ख आदि। इन वास्तविकताओं को बिना देखे मानना और इस भरोसे पर मानना कि नबी उनकी खबर दे रहा है, गैब पर ईमान लाना है। आयत का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति इन गैर-महसूस सच्चाइयों को मानने के लिए तैयार हो, सिर्फ वही कुरआन की रहनुमाई से फायदा उठा सकता है। रहा वह व्यक्ति जो मानने के लिए देखने, चखने और सूँघने की शर्त लगाए, वह इस किताब से हिदायत नहीं पा सकता।


३. *ईमान* (विधीवत नमाज की व्यवस्था स्थापित की जाए.)

 यह तीसरी शर्त है। इसका अर्थ यह है कि आदमी ईमान लाने के बाद तुरन्त ही व्यावहारिक रूप से

आज्ञापालन के लिए तैयार हो जाए, और व्यावहारिक आज्ञापालन की प्रथम और सदा-सर्वदा रहनेवाला सर्वप्रथम लक्षण नमाज़ है।

 अगर कोई आदमी ईमान का दावा करने के बावजूद मुअज्जिन (अज़ान देनेवाले) के अज़ान पर लपकता नहीं, तो यह इस बात का प्रमाण है कि वह आज्ञापालन की सीमा से बाहर हो चुका है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि 'नमाज़ कायम करना' एक व्यापक पारिभाषिक शब्द है, इसका अर्थ केवल यही नहीं है कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करे, बल्कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक रूप से विधिवत नमाज़ की व्यवस्था स्थापित की जाए।



४. *आदमी तंगदिल न हो*

यह कुरआन की रहनुमाई से फ़ायदा उठाने के लिए चौथी शर्त है कि आदमी तंगदिल न हो, दौलत का पुजारी न हो, बल्कि उसके माल में अल्लाह और बन्दों के जो हक़ तय किए जाएँ, उन्हें अदा करने के लिए तैयार हो ।


५. *किताबों पर ईमान लाए*


यह पाँचवीं शर्त है कि आदमी उन तमाम किताबों को सत्य पर माने जो वह्य (प्रकाशना) के ज़रिये से

अल्लाह ने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और उनसे पहले के नबियों पर विभिन्न कालों एवं देशों में उतारी। 

     इस शर्त के आधार पर कुरआन की हिदायत का दरवाज़ा उन सब लोगों पर बन्द है जो सिरे से इसकी ज़रूरत ही न समझते हों कि इंसान को अल्लाह की ओर से हिदायत मिलनी चाहिए, या इसकी ज़रूरत तो समझते हों, मगर इसके लिए वह्य और रिसालत (प्रकाशना एवं ईशदूतत्व) की ओर पलटना अनावश्यक समझते हों और स्वयं कुछ सिद्धान्त गढ़कर उन्हीं को ईश्वरीय आदेश समझ बैठें या आसमानी किताबों को भी मानते हों, मगर सिर्फ उस किताब या उन किताबों पर ईमान लाएँ जिन्हें उनके बाप-दादा मानते चले आए हैं, रहीं उसी स्रोत से निकली हुई दूसरी हिदायतें, तो वे उनको मानने से इनकार कर दें। 


६. *आखिरत*


 यह छठी और आखिरी शर्त है। 'आखिरत' एक व्यापक शब्द है जो बहुत-से विश्वासों के योग के लिए  बोला जाता है। इसमें निम्नलिखित विश्वास सम्मिलित हैं- (क) यह कि इंसान इस दुनिया में गैर-ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि अपने तमाम कर्मों के लिए अल्लाह के सामने जवाबदेह है। (ख) यह कि दुनिया की वर्तमान व्यवस्था सदा-सर्वदा रहनेवाली नहीं है, बल्कि एक समय आने पर, जिसे केवल अल्लाह ही जानता है, इसका अंत हो जाएगा। (ग) यह कि इस दुनिया के अंत के बाद अल्लाह एक दूसरी दुनिया बनाएगा और उसमें सम्पूर्ण मावन-जाति को, जो आदिकाल से लेकर क़ियामत तक ज़मीन पर पैदा हुई थी, एक ही साथ दोबारा पैदा करेगा, और सबको जमा करके उनके कर्मों का हिसाब लेगा, और हर एक को

उसके किए का पूरा-पूरा बदला देगा। (घ) यह कि अल्लाह के इस फ़ैसले के अनुसार जो लोग नेक क़रार पाएँगे, वे जन्नत में जाएँगे और जो लोग बुरे ठहरेंगे वे दोज़ख में डाले जाएँगे। (ड) यह कि, सफलता और असफलता की मूल कसौटी वर्तमान जीवन की खुशहाली और बदहाली नहीं है, बल्कि वास्तव में सफल इंसान वह है जो अल्लाह के आखिरी फैसले में सफल ठहरे, और असफल वह है जो वहाँ असफल हो । धारणाओं के इस योग पर जिन लोगों को विश्वास न हो, वे कुरआन से कोई फायदा नहीं उठा सकते।




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